गोपाल माथुर
1
वह घिसटने लगती है. सारा थकान हमेशा पाँवों में ही क्यों उतर आती है ? कन्धे पर लटका छोटा सा बैग भी बोझ लगने लगता है. थकान.... टूटन...... भीतर ही भीतर कुछ घुटने लगता है.
वह व्यर्थ ही वहाँ आ गई है, यह अहसास उसे आते ही होने लगा था. यात्रा से पूर्व जो हल्का सा उत्साह था, वह भी आहिस्ता आहिस्ता मरने लगा है...... निखिल अपनी पत्नि अपर्णा के साथ है और मनोज अपनी मित्र शिखा के साथ.... ये लोग व्यर्थ उसे अपने साथ घसीट लाए हैं. वह कब तक यूँ ही घिसटती रहेगी ?
....शायद बहुत दूर तक. मैंने स्वयं को मुक्त छोड़ दिया है, अपनी चाहनाओं, आकांक्षाओं, सुख-दुःख, सांस लेने या महज जीने के लिए जिन्दा रहने से मुक्त....... देखते नहीं, मैं अलग हूँ और मेरी देह अलग. पाँवों में उतर आई थकान देह की है, मेरी अपनी थकान से बेहद कम.....
गुलमर्ग से सेवन स्प्रिंग तक की चढ़ाई का यह छोटा सा टुकड़ा उससे पार नहीं किया जा रहा है. वह सबसे पीछे रह गई है. पीछे और अकेली. वे अपने साथियों के साथ इतने खोये हुए हैं कि शायद उन्हें याद भी नहीं होगा कि वह भी उनके साथ यहाँ आई है !
अपनी व्यर्थता के बोध ने उसे एक बार फिर गहरे अवसाद में धकेल दिया है...... वह अपने चारों ओर देखने लगती है. आस पास चीड़ और देवदार के ऊँचे ऊँचे पेड़ फैले हुए हैं, जिनकी पत्तियों से छनकर धूप टुकड़ों टुकड़ों में नीचे आ रही है. जब हवा चलने लगती है, तब रोशनी के ये टुकड़े जमीन पर काँपने लगते हैं. हवा के रुकते ही एक अजीब सा सन्नाटा रेंगने लगता है.... क्या यह उसके भीतर का सन्नाटा बाहर निकल आया है ?
अपने घुटनों पर अपना सिर टिका कर वह एक पत्थर पर बैठ जाती है. चढ़ाई से थक कर उतना नहीं, जितना अपनी बिखरी हुई मनःस्थिति में उलझ कर.
”तुम सो रही हो ?“
उसे अपने कन्धे पर हल्का सा दबाव महसूस होता है. वह अपना सिर उठाती है. यह मनोज है. उसने नया पुलोवर पहन रखा है, जो कल शिखा ने उसके लिए खरीदा था.
”नहीं, मैं सिर्फ अपनी आँखें बन्द किए हुए थी.“ वह उठ खड़ी होती है, मानो अब बैठे रह पाना संभव नहीं रह गया हो, ”शिखा कहाँ है ?“
”वे सब ऊपर हैं और तुम्हारी राह देख रहे हैं.“
सान्त्वना का एक हल्का सा झौंका उसे सहला जाता है... नहीं, वह उतनी अकेली भी नहीं, जितना महसूस कर रही है. उन्हें उसकी परवाह है.
वे चढ़ने लगते हैं. मनोज के साथ अकेले उसे कभी उलझन महसूस नहीं हाती. बातों का क्रम एक सहज प्रवाह के रूप में चलता रहता है, किन्तु शिखा की उपस्थिति में वह सहज नहीं हो पाती. तब उसे हमेशा लगता है कि उसे उन दोनों को अकेले छोड़ देना चाहिए. कई बार उसने उन दोनों को दूर से अकेले बातें करते हुए देखा है. उसने उन्हें हमेशा सहजता से बातें करते हुए पाया. अनेक बार मनोज हँसते हुए शिखा का हाथ पकड़ लिया करता था. शिखा भी हँसती रहती थी....... वे क्या बातें होती होंगी, जो कभी खत्म होने में ही नहीं आती थीं ? लेकिन यदि निखिल भी साथ होता था, तो उसकी सारी असहजता अनायास ही कहीं बह जाती थी.
”हमने नहीं सोचा था कि तुम इतनी जल्दी थक जाओगी.“ मनोज उससे आगे चल रहा है. एक पल के लिए उसे ख्याल आया कि यदि वह मनोज के पीछे चुपचाप कहीं चली जाए, तो उसे पता भी नहीं चलेगा.
”मैं पूरी पूरी नहीं थकी हूँ, सिर्फ टांगों से थक गई हूँ.“
मनोज हँसने लगता है, ”सिर्फ टांगों से ! लाओ, उन्हें मुझे दे दो.“
”तुम हँस रहे हो ?“
मनोज की हँसी सहसा गायब हो जाती है. वह पीछे मुड़ कर उसकी तरफ देखने लगता है. उसके चेहरे पर ऐसा क्या है, जो हमेशा मनोज को आतंकित कर देता है, यह उसकी समझ में कभी नहीं आया.
”अनु......“ मनोज की आवाज उस तक आती है. वह चढ़ते चढ़ते सहसा रुक गया है.
”हाँ, क्या कह रहे हो ?“ मनोज के साथ साथ वह भी रुक जाती है. वह उसे ही देख रही है.
”तुम थक गई हो तो हम रुक सकते हैं.“
”नहीं, चलते हैं.“
वे दोनों चुपचाप चढ़ने लगते हैं, आसपास के पेड़ों के बीच बहती हवा को सुनते हुए. जब पोनी वाले पास से गुजरते, तो सारी निस्तब्धता टूट जाती और यात्रियों का शोर हवा में गूँजता रहता.
.......मैं जानती हूँ मनोज कि तुम क्या जानना चाहते हो. पर मैं उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं भी नहीं जानती....... एक रेगिस्तान है दूर तक फैला हुआ, गर्म और वीरान, जो इन पहाड़ों पर आकर भी पीछा नहीं छोड़ता..... कितने ही प्रश्न उठते हैं, जिन्हें इस रेगिस्तान की वहशी हवा अपने साथ बहा ले जाती है........और मैं एक छोर पर चुपचाप खड़ी रहती हूँ, ......प्रतीक्षा करती हूँ कि शायद कभी कोई गूँज, कोई संकेत उभरे, जो उन प्रश्नों का उत्तर दे सके...... हाँ, देखो तो, मैं सचमुच रेगिस्तान के इस छोर पर खड़ी प्रतीक्षा कर रही हूँ....... अन्तहीन और अनवरत प्रतीक्षा....
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ऊपर, बहुत ऊपर, जहाँ तक जाना संभव है, वहाँ इतना खुला मैदान होगा, उसे सहसा इस पर विश्वास नहीं होता. एक ओर ऊँचे पहाड़, जिनकी चोटियाँ उज्ज्वल बर्फ से ढकी हुई हैं और दूसरी ओर नीचे फैला गुलमर्ग.... हरे पेड़ों की चादर ओढ़े हुए....
”रीयली ब्यूटिफुल.“ निखिल धीरे से बुदबुदाता है. उसके स्वर हवा बहा कर ले जाती है. पर वह सुन सकती है. वह निखिल की हर बात सुन सकती है, उसकी खामोशी भी. उसकी तीव्र इच्छा होती है कि वह निखिल को झकझोड़ कर उसे पहाड़ों के इस मायावी सम्मोहन से बाहर खींच लाये....... उसके साथ ऐसा क्यों नहीं हो पाता ? प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य से वह बंध क्यों नहीं पाती ? कोई भी सम्मोहन अब क्यों उसे कैद नहीं कर पाता ? दूर खड़ी वह उन्हें दर्शक की तरह देखती रहती है.
उसकी निगाहें फिर निखिल की ओर घूम जाती हंै, जो अपनी पत्नी अपर्णा के पास एक चट्टान पर बैठा हुआ है. मनोज भी उसी चट्टान पर उनके पास ही टिका हुआ है - फोटो खिंचवाने के लिए तैयार. शिखा कैमरा सेट कर रही है.
”अनु, तुम भी आ जाओ न !“ शिखा उससे कहती है.
उसे फोटो खिंचवाने का कोई आकर्षण कभी नहीं रहा, पर वह व्यर्थ की बहस से बचने के लिए उनके पास जाकर बैठ गई.
......अब यह क्षण पूरा पूरा कभी नहीं मरेगा, हमेशा जीवित रहेगा, फोटो में, जहाँ वह निखिल, अपर्णा और मनोज के साथ एक चट्टान पर बैठी हुई है. पता नहीं क्यों उसे सहसा महसूस होता है कि उसे भी यह क्षण हमेशा याद रहेगा, जब वह फोटो खिंचवाने के लिए निखिल के पास बैठ गई थी और शिखा के कैमरे की क्लिक सुनने की प्रतीक्षा कर रही थी. आने वाले किसी दिन वह अपने कमरे में बैठी होगी और यह पल उसके सामने आ खड़ा होगा, उतना ही उदास, जितना कि इस घड़ी है.
कुछ फोटोज़ और खींची जाती हैं. अपनी और तस्वीरें खिंचवाने से बचने के लिए वह शिखा से कैमरा ले लेती है और उनकी तस्वीरें उतारने लगती है...... शिखा हँसते हुए मनोज का हाथ पकड़ लेती है. यह क्षण भी उस कैमरे में उतर आता है.
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कई बार उसे विश्वास कर पाना कठिन हो जाता है कि अपर्णा अब निखिल की पत्नी है. आखिर अपर्णा में ऐसा क्या है, जिसने निखिल को हमेशा के लिए बांध लिया है ? निखिल के साथ इतनी लम्बी मित्रता के बाद उसने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन अचानक वह अपर्णा से विवाह कर लेगा. अपने सम्बन्धों को कोई निश्चित नाम नहीं देकर क्या उसने गलती की थी ? उसे न तो कभी नाम देने की आवश्यकता महसूस हुई और न ही उसने कभी निखिल से इस विषय पर कोई बात की. मन ही मन वह यह बात स्वीकार कर चुकी थी कि उसका विवाह निखिल के साथ ही होना था. लेकिन सात वर्षों का अनवरत साथ कैसे अपने अर्थ खो बैठा, यह उसकी समझ में कभी नहीं आया.
वह अपने चारों ओर देखती है. मनोज अकेला ही कहीं दूर निकल गया है और अपर्णा शिखा की गोद में अपना सिर रखे लेटी हुई है. वे दोनों काफी घुली मिली हैं, जबकि वह चाह कर भी उनसे सहज नहीं हो पाती है. निखिल पास ही उसी चट्टान पर बैठा हुआ है. उनके बीच एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई है जो अ-संवाद का हाथ पकड़ कर वहाँ चली आई है. उसके लिए यूँ बैठे रहना असंभव हो जाता है. वह उठ खड़ी होती है.
”मैं उस छोर तक घूम आती हूँ. वह कहती है.
”मैं भी चलता हूँ.“ निखिल उठ खड़ा होता है, ”तुम दोनों भी चलो न !“ वह अपर्णा की ओर देखते हुए कहता है. शिखा की बंद आँखें खुल जाती हैं और वह उठ कर बैठ जाती है.
”चढ़ाई से थक गई हूँ यार. मैं तो कहूँगी कि तुम भी कुछ देर यहीं आराम कर लो. फिर तो बस वापिस लौटना ही है.“ अपर्णा कहती है. उसके स्वर से स्पष्ट झलकता है कि वह नहीं चाहती कि निखिल उसके साथ जाए. उनके बीच रही सात सालों की मित्रता उससे छिपी हुई नहीं है.
”फिर तुम आराम करो. हम अभी आते हैं.“ निखिल कहता है और अनु के साथ चल पड़ता है.
अनु का हृदय तेजी से धड़कने लगता है. निखिल के साथ कुछ क्षण अकेले होने के नाम से ही उसे घबराहट होने लगती है. वे दिन कहाँ गए, जब वे दोनों घन्टों सड़कों पर व्यर्थ ही भटका करते थे ! काॅलेज लाइब्रेरी में, स्टाफ रूम में, कैन्टीन में..... सभी जगह लोग उन्हें साथ साथ देखा करते थे. जब निखिल साथ होता था, तब उसकी आँखों में एक चमक आ जाया करती थी, जिसे छुपाने का वह कभी प्रयास भी नहीं करती थी. वह समझती थी कि सारे कलीग्स सब कुछ जानते हैं कि उनके बीच क्या चल रहा है..... पर यह उसने बाद में जाना कि एक अकेली वह ही थी, जो कुछ नहीं जानती थी.
वह निखिल के साथ चलने लगती है. उसे लगता है, जैसे दूर चट्टान पर बैठी अपर्णा की निगाहें उन दोनों पर लगी हुई हैं. अनजाने ही वह एक दूरी बना कर चलने लगती है.
कितना अन्तर है बीते हुए कल और आज के इस साथ साथ चलने में ! वह सारी सहजता कहाँ चुक गई है ? क्या निखिल द्वारा उपेक्षित होना इसका एक मात्र कारण हो सकता है ? या इसलिए कि उसे अब अपने ही परिचितों के बीच इस व्यक्ति के साथ जुड़े अपने नाम के कारण लगभग अपमानित सा होकर रहना पड़ रहा है ! कहता कोई कुछ नहीं, पर सभी की प्रश्नभेदी निगाहें अक्सर उसका पीछा किया करती हैं. वह किसी को क्या उत्तर दे, उसे तो स्वयं ही नहीं मालूम कि निखिल ने ऐसा क्यों किया ? उसने तो निखिल के विवाह की सूचना को भी पहली बार मजाक ही समझा था. जिस निखिल के साथ उसके सात वर्षों तक इतने आत्मीय सम्बन्ध रहे हों, वही निखिल एक सुबह अचानक अपने विवाह का निमन्त्रण देने आएगा, इस बात की तो उसने कभी कल्पना तब नहीं की थी. ज्यादा पुरानी बात भी नहीं, तब उसी ने निखिल को अपर्णा से मिलवाया था. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि महज कुछ दिनों का अल्प परिचय उसके सात वर्षों के लम्बे और आत्मीय साथ पर भारी पड़ गया था !
”नाराज हो ?“ कुछ दूर चुप चलने के बाद निखिल कहता है.
”नाराज ! ...... नहीं तो !“
फिर वही खामोशी.
”एक बात मानोगी ?“ कुछ क्षणों के अन्तराल के बाद उसे निखिल की आवाज फिर सुनाई देती है. वह निखिल की ओर देखने लगती है.
”स्मृतियों में जीना छोड़ दो.“
”यह तुम कह रहे हो निखिल ?“ वह सहसा चलते चलते रुक जाती है. उसका चेहरा तन जाता है.
”हम जिस मोड़ पर अलग हुए थे, तुम अब तक वहीं खड़ी हुई हो. दुनिया सिर्फ बीते हुए लम्हे ही तो नहीं होती !“
अनु का मन सहसा जोर से हँसने का होता है. अपने शहर से इतनी दूर यहाँ पहाड़ों पर क्या वह सिर्फ यह जानने के लिए आई है ! उसका मन करता है कि वह उसी क्षण होटल में अपने कमरे में लौट जाये.
......नहीं निखिल, तुम नहीं समझोगे. मैं जीती जागती हवा में साँस लेती एक औरत हूँ और मेरा अतीत सिर्फ मेरा नहीं है. उसमें आधा हिस्सा तुम्हारा भी है. मुझे यह जानने का पूरा हक है कि हर पल मेरे साथ रहते हुए भी तुमने सहसा मुझे क्यों अकेले छोड़ दिया था ? वह क्या था जिसने हमारे सात वर्षों के लम्बे आत्मीय परिचय को एक ही बार में तोड़ कर चिन्दी चिन्दी कर दिया था ? तुम्हारे और मेरे बीच पनपे अपनेपन, आपसी समझ और जिन्दगी को एक ही तरीके से जीने के ढंग के बवजूद भी तुम हमेशा के लिए मुझसे क्यों नहीं जुड़ सके ? अपर्णा के साथ तुम्हारे अल्प परिचय में आखिर ऐसा क्या था, जिसने तुम्हें उसके स्थाई आकर्षण में बांध लिया ? मुझे इन प्रश्नों के उत्तर चाहियें निखिल. जब तक मैं इन प्रश्नों के जाल से नहीं निकलूँगी, तब तक कभी सहज नहीं हो सकूँगी. और मैं यह भी जानती हूँ कि अपने उत्तरों की तलाश में मुझे बार बार तुम तक आना ही होगा....
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